गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014


************** क़दमों का सफ़र ***********
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अजनबियत मैं डगमगाते कदम कब इस मुकाम तक आ गए समझ ही नहीं आया, कदमों कि रफ़्तार आगेओर हम ख्यालों के साये मैं पीछे चल नहीं रहे थे, बल्कि बिखर रहे थे, उन गुज़स्ता लम्हों कि तरह जो किरचे किरचे होकर बिखर गए, वो ख्वाब जिन्हें अपनी जिन्दगी से जयादा सम्हाल कर रक्खा जिन्दगी भर, वो ख्वाब जिन्हें सांसों के साये मैं सहेजा, वो ख्वाब जिन्हें धड़कन कि मानिंद सम्हाला, वो ख्वाब जिनकी परवरिश मैं रातों कि नींद ओर दिन का चैन गंवाया, वो ख्वाब जिनकी जुस्तजू मैं पल पल काटों पर गुज़ारा, वो ख्वाब जिनके तस्सवुर मैं सब भुला दिया, वो ख्वाब जिनकी उम्मीद मैं सब लुटा दिया, वही ख्वाब अब ख्वाब ना होकर टूटे हुए अरमान हो चुके थे, वही ख्वाब अँधेरे कि परछाई बनकर दूर हो गए,
" उपरवाले के नाम पर कुछ दे दे बाबा" लफ्ज़ सुनकर कुछ पल को हकीकत मैं वापस आये, आंखें डबडबा उठी, जैसे कलजे को मुठ्ठी मैं पकड़कर मसल दिया गया हो, कदम फिर से रफ़्तार से आगे लेकिन दिल अतीत कि परछाई मैं छुप गया,
" दुआ अगर कुछ देने से मिलती है तो दो, " किसी के अल्फाज़ कानो मैं गुंज़ने लगे, " क्यूंकि दुआ कब किसकी कुबूल हो खुदा भी नहीं जानता, " वही मासूम मगर मोहब्बत से भरा चेहरा आँखों के आगे झूलने लगा पैर पत्थर से टकराया, दिल से आह मगर होठों से कराह निकली, दिल ने कहा " जहाँ भी रहो खुश रहो "
क़दमों किसी ठन्डे मगर ठोस लोहे पर आकर रूक गए, मानो मंजिल मिल गयी,
सुनी पड़ी लोहे कि ठंडी प्रवाहमान प्रतीत होती पंक्तियाँ मानो कह रही हों, आओ मिलकर इस सूनेपन को तोड़ दें, एक बार फिर कदम दिशाहीन दिशा मैं आगे बढ़ने लगे, मन का पंक्षी फिर से अतीत कि गहरी परतों मैं भटकने लगा,
" तुम्हें पता है, ये पटरियां क्या कहती हैं, " एक बार फिर एक अन सुलझा सवाल सामने आ गया,
मेरी आंखें तुम्हारे चेहरे पर प्रश्नवाचक मुद्रा मैं रुक गयीं,
" ये कहती हैं आओ तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक ले जाने का जिम्मा हमारा है, " लफ्ज़ तुम्हारे थे मगर ऐसे जैसे सच के लिए बने हों,
हम मुस्करा पड़े,
" एक बात ओर " तुम्हारी बात अभी भी जारी थी " कहने को ये बेजान लोहे कि भारी सलाखें हैं, मगर सच तो ये है कि ये नदी के उन दो किनारों कि तरह हैं जो हमेशा साथ चलते हैं मगर मिलते कभी नहीं."
हम अवाक् रह गए तुम्हारे इस गहरे एहसास को जानकर,
ऐसे ही ना जाने कितने अन सुलझे सवालों के साथ पैर आगे आते चले गए, ओर हम खुद से जुदा एक नए सच के लिए आगे आ गए,
क़दमों ने फिर दो पल को रूककर विचार माला को भी रोक दिया, शाम कि सुनहरी चादर हलके धुंधलके मैं तब्दील होकर कालिमा के आगोश मैं जाने लगी थी,
वर्तमान थोडा सा पीछे गया ओर कल का वर्तमान आज का अतीत बनकर सामने आ गया,
ग़मगीन माहौल, हलके से चलने वाली हवा भी शायद अपने परों को हलके हलके ही चला रही थी मानो उसको भी इस पल का सबर के साथ इंतजार रहा हो, या फिर उसको भी मेरे सबर का इम्तहान लेना था,
रात भर के उदास पड़े फूल अब बिखर कर सोने कि कोशिश कर रहे थे, सूरज कि ताज़ा ताज़ा निकली किरनें भी सुर्खी कि चुनर ओढ़कर आई थी,
लाल गुलाबों से सजी एक लम्बी सी कार अपने पीछे धूल कि चादर फैलाते हुए आँखों से ओझल होने लगी,
तभी एक लम्बी से सीटी कि आवाज़ सुनाई दी, हम अतीत के साये से बहार आये,
लाल रौशनी अँधेरे का सीना चीरती दिखाई देने लगी, तीर कि तरह नज़दीक आती रौशनी होठों पर आई हुई मुस्कान को ओर भी गहरा करने लगी.
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19/07/2009


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