सोमवार, 12 जनवरी 2015



****** आधुनिक फरिश्ता ******

"बहिन जी, ये लो दवाईयां और आपकी दवा की पर्ची," सुबह के 4 बजे अपरिचित तांगेवाला के इन शब्दों ने मेरा इंसानियत पर से उठता यकीन फिर से जिन्दा कर दिया,
"जी भैया " मेरे मुंह से महज़ इतने शब्द निकले,
"आप बच्चे का ख्याल रखिये " कहते हुए वह आधुनिक फरिश्ता वापस जाने लगा,
" भैया कितने पैसे लगे " मैंने हड़बड़ाते हुए पूछा
" बहिन जी, दवाई २६४ रूपये की है, बिल है मेरे पास " तांगा मोड़ते हुए बोले, "पैसे भैया से ले लूंगा, आप बच्चे की देखभाल करिये," कुछ पल को मैं अवाक् सी खड़ी रही, ऐसा भी कोई आधुनिक फरिश्ता हो सकता है इस युग में क्या,
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" सुनो तांगा वाले भैया के पैसे लौटा देना, " इनके जाने की आहट सुनकर " बिल उन्ही के पास है, कह रहे थे २६४ रूपये का बिल है मुन्ने की दवाई का"
" कौन तांगा वाला" इनके सवाल ने मुझे चकित कर दिया, " इनकी आँखों में विस्मय के भाव देखकर में भी चकित रह गयी "बताया तो था जो मुन्ने के साथ मुझे अस्पताल लेकर गए थे "
" हाँ बताया तो था, मगर उनका नाम, एड्रेस, कुछ तो दो, " मुझे सुनकर सुखद आश्चर्य हुआ."अरे वह आपको जानते हैं, कह रहे थे पैसे भैया से ले लूंगा,"
" रमा तुम भी गज़ब करती हो, इस अनजान शहर में अभी हमें २ हफ्ते ही तो हुए हैं, यहाँ कौन जानता है हमें," इनके शब्दों ने मुझे घोर अचरज में डाल दिया,मुन्ना हंस हंस कर खेल रहा था,
“ठीक है में देखता हूँ तुम भी देखना अगर तुम्हे दिख जाये तो उस भले मानस के पैसे तो लौटा देना," कहते हुए ये तो बाहर निकल गए लेकिन मेरी आँखों ले आगे २ दिन पहले की रात का वह वाकया हूबहू चलने लगा
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" तांगा, तांगा, तांगा," आवाज़ दूर तक गूंजती गयी लेकिन वह तांगा नहीं रुका, न रुकने वाला यह तीसरा तांगा था,
छोटा और अनजान पहाड़ी शहर, २ हफ्ते पहले ही विराज (मेरे पति) का तबादला हुआ यहाँ, रात के डेढ़ बजे मुन्ना बुखार से तप रहा था, विराज सुबह ही गांव गए बाकि सामान लेने, सुबह से रुक रूककर बारिश हो रही थी, सरकारी कॉलोनी के नाम पर १२ घर, लेकिन सिर्फ २ आबाद, क्यूंकि कॉलोनी आबादी से दूर थी, पहले घर में ७५ वर्षीया कमलू काका शराब के नशे में बेसुध पड़े, मैं पिछले 1 घंटे से परेशान हो रही थी की कुछ साधन मिल जाये तो बच्चे को लेकर किसी अस्पताल या डॉ. के पास जायें,
है प्रभु अब तुम ही कुछ सहारा दो, मेरा अंतर्मन आर्तनाद कर उठा, तभी दूर से एक तांगे जैसा कुछ दिखा, है प्रभु दया करो, मन ही मन मानती मैं उसको रोकने की कोशिश करने लगी,
वह पास आकर रुका, तो वह अजनबी मगर फरिश्ता सा लगा, पूरी बात सुनकर बोला
" बहिन जी, इस वक़्त कोई अस्पताल, डिस्पेंसरी, इस छोटे से पहाड़ी शहर मैं, वह भी ऐसी बरसात मैं, राम जी का नाम लो, " मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसकती लगी,
" बहिन जी, बड़ा अस्पताल ८ कोस दूर पड़ेगा," सुनकर काटो तो खून नहीं वाली स्थिति बन गयी, लेकिन और कोई साधन नहीं,
" है प्रभु दया करना "मन ही मन सुमरन करती बच्चे को गोद में लेकर तांगे मैं बैठ गयी, हर आहट के साथ मन मछली जैसा तड़प उठता,
मम मम मम मम्मा, मुन्ने की आवाज़ मुझे वापस आज में ले आई, आँखों की कोरे गीली होने लगी थी, उस आधुनिक फ़रिश्ते को याद करके,

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