सोमवार, 29 सितंबर 2014

***** "पत्र-शब्दों में सच" *****
श्रीमती सुचित्रा देवी,
सादर नमस्ते,
आज अपने 18 वर्ष पूरे होने पर हम आपका आशीर्वाद मांगते हुए आपको धन्यवाद देना चाहते हैं की आप लोगोँ ने हमें इस संसार मैं आने का मौका तो दिया, वरना न जाने कितनी बेटियां . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .
                                                           
                                  क्या हुआ आप चौंक क्योँ गयीं, इसीलिए न कि आज हमने आपको मम्मी नहीं लिखा, है न, बिलकुल जी हाँ आपका चौकना बिलकुल स्वाभविक है, लेकिन क्या करें क्योँकि जहाँ तक हमें याद है, हमारी मम्मी का नाम श्रीमति सुचित्रा राजेंद्र कुमार था, लेकिन आप तो श्रीमती सुचित्रा विश्वास हैं, फिर आपको हम मम्मी कैसे कहैं, हम जानते हैं की हमारी इस हरकत से आपको तकलीफ हुई होगी, हम उसके लिए आपसे माफ़ी भी मांगते हैं, लेकिन हमारे दर्द का क्या, हमारी तकलीफ का क्या, जो हमने पिछले १० साल से हर पल उठाई है, क्या आप बता सकती हैं हम उस कष्ट के लिए किसे जिम्मेदार ठहरायें, आपको, पापा को, खुद को, या ईश्वर को, सच मैं हम जब भी यह सोचते हैं तो हमारा दिमाग पूरी तरह से ठप्प हो जाता है, इसीलिए अब हम ये सोचते ही नहीं हैं.

                               आप कहती थीं की मेरी बेटी बिलकुल यूनिक है, सच मैं मम्मी आपकी बेटी बिलकुल यूनिक ही है, जानती हैं आप क्योँ, क्योँकि दुनिया मैं ऐसे बच्चे तो लगभग सभी होते जिनके मम्मी डैडी होते हैं, कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके मम्मी या डैडी मैं से कोई एक या फिर दोनों ही नहीं होते, मगर हम दुनिया के उन खुशनसीब लोगोँ मैं से हैं जिनके एक नहीं, 2 – 2 मम्मी डैडी हैं, एक मम्मी डैडी श्री राजेंद्र कुमार & श्रीमती सुषमा जी, और दूसरे श्रीमती सुचित्रा देवी और श्री विश्वास जी, सच मैं मम्मी आपकी बेटी यूनिक ही है, जो डबल पेरेंट्स के होते हुए भी कभी अपने बचपन का अहसास भी नहीं कर पाई, आखिर कितने लोगोँ ने इस तरह बचपन गुज़ारा होगा जैसा हमने।
                                   
                            सच मैं मम्मी हमें आज भी याद है वह दिन जब आप और पापा एक दूसरे से झगड़ा करते थे , तब 6-7 साल की होने पर भी हम अपने घर की सारी खिड़कियां बंद कर लेते थे, जानती हैं मम्मी हम ऐसा क्योँ करते थे, क्योँकि मम्मी अगले दिन पड़ोस वाली मीरा आंटी, गणेश अंकल, शुभा आंटी, माया बुआ, सब हमसे पूछते थे, "पापा क्या कह रहे थे गुड़िया", उस वक़्त हम उनसे सहम जाते, तो दुलारते, और जब हम आप दोनों के बीच मैं बोले जाने वाले गंदे शब्द बोलते तो सब दाँत दिखकर हँसते थे, सच मैं मम्मी उस वक़्त और आज हमें उन बातोँ पर जो ग्लानि होती, उसके बदले मैं तो शायद अग्निपरीक्षा देकर भी बरी न हो पाऊँ, तब नहीं मगर आज समझ मैं आ गया मम्मी की क्या बात थी, और क्या नहीं थी, सच मैं मम्मी वह लम्हा आज भी ह्मारे सामने जीवंत हो उठता है जब कोर्ट से बहार आते हुए पापा ने कहा था " बेटा शुभी अपनी मम्मी के साथ जाओ" आपको याद है न मम्मी उस दिन हमने धरती पर 2922 दिन पुरे किये थे, हाँ मम्मी उस दिन हमारा 8th बर्थडे था, बस उसी साल से हम ये भी भूल गए की हमारा बर्थडे भी है किसी दिन,
                           उस दिन अपने कहा था न "बेबी अब आप गर्ल्स हॉस्टल मैं रहोगी, विंटर वेकेशन तुम्हें मेरे साथ गुज़ारनी है, और समर वेकेशन अपने पापा के साथ "बस मम्मी वह आखरी लम्हा था जब हमने अपने मम्मी पापा को साथ साथ देखा था, उसके बाद आप लोग साथ मैं तो आये, मगर सिर्फ हमारे ख्यालों, और सपनो मैं, उस दिन पता नहीं हमें सब कुछ इतना बोझिल सा क्योँ लग रहा था, सच मैं मम्मी उस दिन हमारे अंदर कुछ टूट कर बिखर गया था, आवाज़ हो रही थी, मगर बाहर नहीं अंदर ही अंदर, तभी से सिलसिला बन गया आपके साथ विंटर और पापा के साथ समर मैं रहने का, उस समय हम बिलकुल भी नहीं समझ पते थे, कि सबकी तरह हमारे मम्मी पापा एक ही घर मैं क्योँ नहीं रहते, जब समझी तब तक आप श्रीमती सुचित्रा विश्वास बन चुकी थी, और पापा के नाम के साथ सुषमा देवी जुड़ चुका था, कई बार हमारे मन मैं आया कि आप दोनों से पूछें आखिर इसमें हमारा क्या दोष था, फिर इस संसार की सबसे बड़ी चोट हमें ही क्योँ लगी, आप दोनों तो बरी हो जाते यह बोलकर की आपकी शादी आपकी मर्ज़ी से नहीं हुई थी, इसीलिए कभी सुकून नहीं मिला, मगर हम क्या कहैं, किससे पूछैं, कि हमारा सुकून किसके पास है,

                         मम्मी जिस पीड़ा को लोग अमूमन 40-50 कि आयु मैं महसूस करते हैं, आप दोनों की दया से वह पीड़ा हमने 10 वर्ष की न होते हुए भी महसूस कर ली थी, दूसरी लड़किओं को उनके बड़े होने का मतलब माँ, या घर की कोई महिला बताती है, मगर मम्मी हमने अपने बड़े होने का मतलब खुद जाना है, दुःख हैं मम्मी की जब हमें आपकी सबसे ज्यादा जरुरत थी, तब आप हमसे सबसे ज्यादा दूर थी, हर साल हम अपनी क्लास मैं टॉप करते मगर अवार्ड फंक्शन मैं भी सबसे ज्यादा हम ही रोते थे, क्योँकि जब दूसरे बच्चे अपने माता-पिता के साथ बिलकुल सुरक्षित मन से, मस्त होते तब हम बिलकुल अकेले होते, असुरक्षित होते, सब हमें स्नेह देते मगर बस वही हाथ वहां नहीं होते जिनका स्नेह सबसे ज्यादा हमें चाहिए था,

                        दर्द सिर्फ इतना नहीं है की हमें घर नहीं मिला, बल्कि दर्द ये भी है की घर के साथ-साथ सारे रिश्ते–नाते हमसे पराये हो गए, शशि हमें दीदी कहती है, मगर बस दीदी ही, छोटी बहिन जैसा बहनापा जाने क्योँ उससे भी नहीं मिला, अनुज के लिए तो हम हमेशा से ही एक अनचाहे मेहमान हुआ करते थे जो जितनी जल्दी जाये उसको उतना ही अच्छा लगता था, मम्मी बचपन के वह लम्हे जब बच्चे आपस मैं न जाने कितनी तरह की बातें आपस मैं बांटते हैं वह तो हमारे नसीब मैं भगवान ने ही नहीं लिखे थे, मगर हमें इस तरह अवांछित क्योँ माना गया, यह भी हमें आजतक समझ नहीं आया, माना मम्मी की आप और पापा की शादी की वजह दादा जी की मर्ज़ी थी, मगर . . . . . . . . . . . . . . . . छोडो मम्मी क्या फायदा,

                        एक बात पूछें आपसे, चलो आज हिम्मत करके पूछ ही लेती हूँ, आखिर आपको ये कब पता लगा की आपकी यह बेटी भी बड़ी हो गयी है, पापा से भी पूछा था उनका जवाब क्या था जानना चाहेंगी आप, उन्होंने लिखा था " बेटा कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो बस मैं नहीं होती, जिनका अहसास न होते हुए भी हो ही जाता है, " यानि उनके लिए शायद मैं एक बेबस कहानी हूँ, न न न न आप सोचने को मज़बूर न हों आपका जवाब भी हमें पता है, आप यही बोलेंगी न की आप मज़बूर थी, जानते हैं हम ये भी,

                         एक दो नहीं हज़ारोँ बार हमने अपने आप से, ईश्वर से, सवाल किया की आखिर मैं कौन हूँ, क्योँ हूँ, हमें जवाब किसी आवाज़ से नहीं समय से मिला मम्मी और वह जवाब ये था की मैं किसी के वज़ूद का अनचाहा हिस्सा हूँ, और इसीलिए हूँ क्योँकि हमें नहीं होना चाहिए था, आपको याद है जब नानी-माँ से आप बोली थी " अम्मा शुभी ने अब राजेंद्र के बारे में सवाल करना बंद कर दिए हैं" तब हमें कितनी बेबसी हुई थी यह न बताने मैं की हमने सवाल करना बंद क्योँ किया था, पिछली बार जब पापा के पास थी तब दादी माँ बोली थी "राजेंद्र सभी अब बड़ी हो गयी है," पापा बस शुन्य मैं तकते रह गए थे, क्योँकि उन्हें पता नहीं था की उनकी बेटी तो 10 साल पहले ही बड़ी हो गयी थी, अब एक आखिरी बात है मम्मी, जैसा की आपको पता है, हम अब पूरे 18 के हो चुके हैं, अतः जीवन का अगला क्रम पूरा करना होगा, इसीलिए आपको बता रही हूँ, राजन हमारी लाइफ मैं है, वह भी हमारी ही तरह अकेला है, बस फर्क ये है की हम अपने मम्मी पापा का नाम जानते हैं, और वह ये भी नहीं जानता, ना ना ना ना आप चिंता न करें आपका खून इतना गन्दा नहीं है की फिसल जाये, या अपने जीवन का इतना बड़ा फैसला हम अकेले कर लें, आपके साथ, पापा को भी पत्र लिख रहे हैं, की वह भी आकर एक बार राजन से मिल लें, आप से भी आखरी बार विनती है की आप भी अपनी इस अवांछित बेटी की और थोड़ी सी दया दृष्टि डाल लें,
आप दोनों ने हमारे नाम पर जो बीमा पालिसी ली थी वह भी अब मेच्युर होने को है, उसका भी फैसला करना है क्योँकि हमें उस पालिसी की जरुरत नहीं है, आपसे प्रॉमिस करती हूँ मम्मी की अगर आप और पापा मैं से कोई एक भी यदि राजन के लिए न कर देंगे तो हम कभी राजन की और देखेंगे भी नहीं, मगर उसके बाद हमसे आगे कभी ऐसा करने को न कहना, हम अपनी बाकि जिंदगी भी जी लेंगे, वैसे भी इस शरीर की भावना तो 10 साल पहले ही मर चुकी हैं, आगे फिर नहीं होंगी,
अगले महीने एयर-होस्टेस की ट्रेनिंग के लिए हम सिंगापुर जा रहे हैं कंपनी की और से, तब तक के लिए और इस नाम मात्र के रिश्ते को निभा लें, फिर आगे की आगे देखेंगे,
अपना और अपने परिवार का ख्याल रखें,
आपकी
अवांछित बेटी

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

**** विश्वास की डोर *****
"राजधानी हवाई सेवा मैं आप सभी का स्वागत है, सभी यात्रिओं से अनुरोध है की विमान उडान भरने के लिए तैयार है इसीलिए आप सभी अपनी सीट बेल्ट बांध लें, " विमान मैं अदृश्य स्पीकर से उभरने वाले इस स्वर ने हमें कल्पनालोक से बाहर ला दिया, अब वही स्पीकर अंग्रेजी मैं उद्घोषणा कर रहा था और हम यथास्थिति मैं आकर छोटी खिडिकी से बाहर की और देखने लगे, गति ने एहसास करवा दिया की विमान रनवे पर गतिमान है, कुछ ही पलों के बाद आसमान में उड़ने का एहसास हुआ, जब नज़रों को वापस घुमाया तो पाया की विमान के अंदर हलचल काफी कम हो गयी है,
मन भटकने लगा, हाथ एक बार फिर वर्षा के उसी पत्र पर आ गया जो इस त्वरित यात्रा का कारक बना, वर्षा लगभग ३५ वर्ष पहले हमारी कक्षा से २ वर्ष पहले की कक्षा की छात्रा थी, उसके पापा आर्मी में थे, आर्मी की गाड़ी से रोज़ नियत समय पर आने वाली एक सीधी सादी लड़की, जो पता नहीं कब और कैसे हमारी मण्डली की अहम सदस्य बन गयी, उस सीधी सादी लड़की ने हम सभी को पता नहीं कैसे और कब स्नेह के अनकहे बंधन में बांध लिया, एक ऐसे रिश्ते में जिसको नाम कुछ न ही दें तो बेहतर, क्यूंकि विश्वास की डोर के अलावा आर कुछ था ही नहीं, उसी विश्वास की डोर ने ३५ वर्ष के अंतराल के बाद भी उसी विश्वास से आवाज़ दी, उसी विश्वास ने पूरी शिद्दत से हमें झिंझोड़कर रख दिया, उसी विश्वास की डोर ने अनकहे रिश्ते को सामने ला दिया, इतने सामने की कोई समझ ही नहीं पाया की अचानक राजधानी की और मन - प्राण चलने लगे, बिलकुल सीधा सा पत्र जैसे पहले लिखती थी पागल लड़की, सच में पागल,

" बाबू सा,
यह पत्र मिलते ही चले आना, जीवन के इस पड़ाव पर आकर आपको परेशान कर रही हूँ , मगर परेशान ना करुँगी तो सम्हाल नहीं पाऊँगी खुद को भी, ठीक वैसे ही जैसे अब ३५ वर्ष पहले आपको परेशान ही करती थी, जानती हूँ बाबू सा की इस लम्बे समय में आपको कभी भी अपने परिवार से जोड़ नहीं पायी, लेकिन एक पल को भी आपकी यह पागल लड़की आप सभी की यादों से अलग नहीं हुई,

" बाबू सा,
बहुत ही संक्षिप्त में लिख रही हूँ, ये (मेरे पति) एक रोड एक्सीडेंट में घायल होकर अस्पताल में जीवन की लड़ाई लड़ रहे हैं, मेरे बेटा "समृद्ध", अमेरिका में पढाई करने गया है, बेटी "ऋषिका" अपने जीवन साथी के साथ पहले ही ऑस्ट्रेलिया में रहती है, आप तो जानते ही हैं की में अपने मम्मी पापा की अकेली लड़की थी, जबकि इनके परिवार ने विजातीय विवाह के कारण इनको अलग ही कर दिया था, पापा मम्मी रहे नहीं, इनके परिवार से न तो कोई सम्बन्ध हैं न जानकारी, अपना कालेज छोड़कर जब जम्मू आये तो ये पापा की रेजिमेंट में ही थे, पापा के सबसे नज़दीक और भरोसेमंद, पता नहीं कब हम मन के इस बंधन में बंध गए, पापा को पता हुआ तो मान गए, लेकिन इनकी फैमिली तब से अब तक न कोई मिला न किसी से जुड़ पाये,

बाबू सा
जीवन के इस पड़ाव में अब आकर लगा की अपनों के बिना जीना कितना विकट है, समृद्ध को आते आते १० दिन तो लग ही जायेंगे, ऋषिका भी परिवार, जॉब में उलझी है, अगर आना भी चाहे तो वीसा ईज़ा पता नहीं कब तक हो पायेगा, यहाँ आर्मी हॉस्पिटल में एडमिट हैं, डॉ. दवाई, देख-रेख, सब है, लेकिन मन का पंक्षी पता नहीं कहाँ कहाँ उड़कर कैसा कैसा हो रहा है, "

"सर, आप कुछ लेंगे " एयर होस्टेस की आवाज़ ने तारतम्य को तोड़कर यथार्थ के धरातल पर लेकर खड़ा कर दिया, जो अभी भी विमान के साथ हवा में ही था,

" हाँ एक कॉफ़ी और कुछ स्नैक्स" हमारी आवाज़ हमें ही खोखली लगी, कलाई पर नज़र डाली तो होंठ बुदबुदा उठे " अभी भी १ घंटा है, राजधानी के हवाईअड्डे पहुचने में, " और पत्र की और पुनः आँखें चली गयी,

बाबू सा,
इनके एक्सीडेंट के एक दिन पहले आपका एक साक्षात्कार पढ़ा एक पत्रिका में, इन्होने देखा तो बोले "तुम मन छोटा मत करो हम बाबू सा के पास जरूर चलेंगे, " बाबू सा ऐसा मत सोचना की संकट के समय याद कर रही हूँ, सच में बाबू सा आप सबसे अलग होने के बाद जीवन के इतने भंवर आये की मेरे अपने साथी कहाँ रह गए चाहकर भी ढूंढ नहीं पायी, और जब ढूंढा तो कोई मिला ही नहीं, पहले शादी फिर बच्चे, फिर इनके साथ दुनिया की सैर, हर देश की अलग - अलग बातें आज भी डायरी में लिखकर रक्खी हैं आपके लिए, सच में बाबू सा बड़ी इच्छा थी आपसे सारी बातें साझा करने की, मेरा मन अब भी कह रहा है, की आप जरूर आयेंगे अपनी पागल लड़की के पास,"
आपकी
वर्षा,

मन के किसी कोने से हुक उठी जिसने सब मरोड़कर रख दिया, हे भगवान कभी मेरी गुड़िया को ऐसी विपदा में न डालना, अपनी छोटी बहिन की याद आ गयी, " सर आपका फ़ूड, " एयर होस्टेस एक बार फिर भटकते मन को विमान के साथ ले आई. " शुक्रिया " अपने चेहरे पर ओपचारिक मुस्कराहट के साथ हमने कहा, बदले में उसने भी हलकी सी मुस्कराहट के साथ ट्रे को जॉइंट प्लेट पर छोड़ दिया.

कॉफ़ी सिप करते हुए, बादलों के बीच कितनी बार, कितनी तरह से, मेरा मन भी कहाँ कहाँ घूम आया, हर याद के साथ एक मुस्कराहट या आह, बरबस ही आ जाती हमारे चेहरे पर, इसी बीच विमान के हवाई अड्डे पर पहुचने की घोषणा हुई, तो बेकली और बढ़ने लगी, पल पल युगों से भी भारी लगने लगी, हवाई अड्डा, टैक्सी, रास्ता, सब पीछे जाने लगा, याद आ रही थी तो वही पगली लड़की, विश्वास की डोर, अपनेपन का रिश्ता, अवचेतन की आवाज़, बीता हुआ कल,


बुधवार, 17 सितंबर 2014

***** अधखुली आँखों से सपना*****

"क्यूँ चौंक गए ना?" तुम्हारा चहकता हुआ स्वर सुनकर हम सच मैं चौंक गए,
लैपटॉप को टेबल पर रखते हुए हमें लगा हमें सच मैं बहुत ख़ुशी हुई तुम्हें अपने साथ देखकर,
" तुम कब आई?" कुर्सी पर पसरते हुए हमने सवाल किया, 
क्यूंकि हमें पता था, अगले कुछ पलों मैं तुम्हारे हाथ कि बनी गरमागरम कॉफ़ी मिलने वाली है,
" अभी एक घंटे पहले " सच मैं तुम जब सामने आई तो हाथ मैं ट्रे जिसमें कॉफ़ी के दो मग और पानी से भरा गिलास रखा था.
" चलो अब जल्दी से कोई अच्छी खबर सुनाओ?" पानी का गिलास हाथ मैं देते हुए तुमने कहा,
" तुम्हें कैसे पता? " एक बार फिर तुमने मुझे चौंका दिया,
" नहीं पता नहीं है, बस मन ने कहा तो मेने पूछ लिया" दोनों के सामने मग रखते हुए बोली तुम,
" हाँ हमें कांट्रेक्ट मिल गया" कॉफ़ी सिप करते हुए हम बोले, तो तुम्हारे चेहरे पर मुस्कराहट और भी जयादा खिल उठी,
कुछ पल सन्नाटा फिर आ गया जैसे मन कि बातें मन से होने लगी, जिनमें जुबान कि जरुरत ही नहीं थी,
" चलो हिल स्टेशन चलते हैं" तुम्हारे शब्दों ने मुझे यथार्थ मैं लाकर खड़ा कर दिया,
" हां चलो" कहता हुआ मैं खड़ा हो गया,
" कल रविवार है, कल वहीँ रुकेंगे" हम तुरंत तैयार हो गए,
" बाकी के तीनो नंबर बंद करो, कल कोई कल नहीं होना चाहिए" तुमने हमारे हाथ से मोबाइल लेते हुए कहा, " कल पूरे दिन सिर्फ घूमना है सब कुछ भूलकर"
" गुड मोर्निंग, गुड मोर्निंग, गुड मोर्निंग, " कि धुन ने हमें सपने से जगा दिया,
मोबाइल मैं देखा तो ये तुम्हारा मेसेज था, गुड मोर्निंग मेसेज,
फिर वो क्या था,
और हम मुस्करा पड़े क्यूंकि सुबह का सपना देखा था, अधखुली आँखों से